हाथों की लकीरें
हाथों की लकीरें
मुकद्दर के बही-खाते, हैं ये हाथों की लकीरें
इन्हीं के दम पे बनती हैं,जहाँ में सबकी तकदीरें।
हमारे कर्मों के अनुरूप,वो गढ़ता है हाथों में
किसी को मिलती बदहाली,किसी को प्राप्त जागीरें।
करो अभिमान कितना ही, स्वयं का भाग्य लिख लोगे
जब तक वो न हो राजी, हिला पत्ता न पाओगे।
पूर्व के कर्मों का फल तुम,जन्म के साथ पाते हो
क्या पाना है, क्या खोना है,लिखा हाथों में लाते हो।
श्रेष्ठ रचना बना कर उसनें, तुमको भेजा धरती पर
परीक्षा लेने को फिर, रच दिया,ये मोह का भंवर।
मगर इंसान अपनी श्रेष्ठता पर, ऐसा इतराया
कि फिर इस व्यूह से बाहर कभी आ ही नहीं पाया।
मिली जब खुशियाँ उन पर, लग गया निज नाम का तमगा
दुखों की लेकर फरियादें, उसी के दर पे जा धमका।
गिनाए उसको भी सुन मैनें कितने, पुण्य कर डाले
छुपा कर सात पर्दों में, रख लिये कर्म सब काले।
मगर वो देख सकता है छुपी सारी कलुषता को
त्याग कर पाप का कीचड़, खुद में भर ले सरसता को।
वरना उसकी अदालत में, जब तेरा फैसला होगा
अकेला हो विवश रोएगा, कोई साथ न होगा।