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Hilal Hilal

Abstract

4  

Hilal Hilal

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एक जंगल स्याह काला था

एक जंगल स्याह काला था

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हरा-भरा नहीं ये जंगल स्याह काला था,

पनाह कहाँ मुझे कैसे मिलती ? 

हर दरवाज़े पर पड़ा एक ताला था

 

शोर बहुत मगर हर सम्त 

सुनाई देता था, "मैं हूँ यहां" 

जब जा कर देखा तो कोई नहीं, 

हर शख़्स वहां धोखा देने वाला था। 


आंखों में लालच दिल में चालाकी थी, 

ज़ुबाँ पर मीठी बात हालांकि थी 

हाथ मिलाते, गले मिलते। 

हाथों की सफाई गला काट आपा-धापी थी। 

थे मासूम चेहरों से निहायती लेकिन 

चोरी के फन में हर शख्स आला था। 


पैसा था रुतबा था

बंगले मोटर कार नौकर चाकर थे

मांगने वाले हाथ थे देने वाली नियत नहीं। 

मर गए मासूम भूखे तड़पते लेकिन 

उनके मुंह में सोने का बड़ा निवाला था। 


कलम, स्याही, सहाफी, अख़बार उनके 

उजले-उजले कुर्ते काले कारोबार उनके। 

सच उनका झूठ उनका।

धोखे मक्कारी वाले साहू सब यार उनके। 

था देश के कोने-कोने में मातम लेकिन 

घर उनके बड़ा उजाला था। 


एक भीड़ जो ख़ुद को कहती शाकाहार था

हाथों में उनके नंगी तलवार थी 

रक्षा करते गाय की मचाते शोर वो

थे खूं के लेकिन प्यासे आदमख़ोर वो।


न इंसानियत से मतलब न मोहब्बत गाय की। 

परवाह न यतीम बच्चों की, न बेवाओं की हाय की। 

थे देशभक्त फिर भी वो सारे, 

उस जंगल का कानून बड़ा निराला था। 


पनाह कहाँ मुझे कैसे मिलती ? 

हर दरवाज़े पर पड़ा एक ताला था

एक जंगल स्याह काला था ! 


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