एक नदी
एक नदी
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मैं हूँ एक नदी
इठलाती सी
बलखाती सी
अपने सागर से
मिलने को
चलती हूँ
मतवाली सी
कितनी ही
दुर्गम राहों से
मैं गुजरती जाती
बस मन में लिये
लगन पिया की
हरदम बढ़ती जाती
पानी का परिधान पहनकर
धाराओं की चूड़ी पहनकर
बादल का मैं
घूंघट कर कर
और हवाओ की
पायल पहनकर
बस मैं चलती जाती
अपनी धुन में
खोयी जाती
कब प्रिय से मिलना होगा
कब मेरा स्वप्न पूरा होगा।