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Bhavna Thaker

Abstract

3.6  

Bhavna Thaker

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बेनमून दीपक

बेनमून दीपक

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फुर्सत के पलों में दरिया के साहिल पर चलते

तलवों पर ठंडी रेत की सरसराहट महसूस करते

एक मुट्ठी आसमान ढूँढती मैं

अपने खयालों की डोर से बंधी चल रही थी कि,


"एक आग का केसरी गोला अपनी ओर

खींचते मेरी गरदन के तील पर ठहर गया"

बेनमून दीपक है ये डूबता सूरज 

बाँहें फैलाता अधीर सागर ओर सागर की

आगोश में छुपने को बेताब सूरज की

सुमधुर गोष्ठी को सुन रही हूँ क्षितिज की धुरी पर,


आँखों ही आँखों में जो ये करते हैं

अठखेलियां सपनों में बसा लेना चाहती हूँ

ये काव्यात्मक नज़ारा.!

 क्या पड़ताल कर लूँ स्मृतियों की संकरी गलियों में

संजोया ये रोशनी से झिलमिलाता सूरज

डूबेगा तो नहीं ? ताउम्र महसूस होता रहेगा यूँ ही ?


ना...कोई विमर्श नहीं छेड़ना

क्या जरूरत है खुद के भीतरी डूबकी लगाने की.!

 जानती हूँ मैं जब पलकों के उठने ओर गिरने के बीच के

महीन पलों में ही बहुत कुछ बदल जाता है

दुनिया के पटल पर ये सूरज क्या.!


मैं तो बस ज़िंदगी की तपती रेत पर चलते पड़े

हुए फ़फ़ोलों पर मरहम लगाना चाहती हूँ 

ज़ख्म को शेक लूँ डूबते सूरज की मंद आँच पर

आम से खास कर दूँ.!

कुछ-कुछ दर्द को तपिश ही क्यूँ राहत देती है।

 

जाते जाते ये इत्मीनान से डूबते हुए सूरज का सुबह पर

शिद्दत वाला एतबार मेरे मन को आशा का

हौसला देते गुनगुना गया,

डूबने वाले का उदय निश्चित है बस

भोर का इंतज़ार करने में आलस ना हो।


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