एक मित्र रूपी संत
एक मित्र रूपी संत
देखा है हमने एक ऐसा चेहरा,
जो रहता हर वक़्त खिला खिला,
उनको देख भूल जाया करते हैं ग़म अपने,
न जाने होता हैं ये करिश्मा कैसे।
वो सावन की खुश्बू सी उनकी अच्छाई,
वो पूर्णिमा की चांदनी से उनके विचार।
वो रातकली जैसी उनकी सादगी,
और बसंत की तरह रंग बिखेरता
उनके भक्ति का अंदाज़।
संपुर्ण सात्त्विकता की वो है मिसाल
इस दुखालाये की अंधयारी गलियों में,
वो प्रकाश लेकर आये हैं।
हे कान्हा, बारम्बार प्रणाम तुम्हें,
ऐसी जो तुम्हारी कृपा मिली हमें।