जाल काटके
जाल काटके
ढूंढ रही मैं जिंदगी बंदगी की चाह में
सफाई देने में लगी रही में
कभी गम कभी खुशियां
देती रही पाने की चाह में मैं ।।
हर वक्त देती रही खुदको सजा
डूबती रही गहरे समुंदर में
सीरत को ना पहचान सकी
धोखा ही धोखा खाती रही मैं ।।
कभी किसी की आँखों में
कभी किसी के सोच में
ठंडी बर्फीली छैया की चाह में
धूप में तपती रही मैं।।
दस्तक को सुनती रही मैं ।।
जमाने की ठोकर ने जीना सिखाया
मौत भी ना आई मुझे मरमर के
पंख देकर बेमिसाल बना दिया
जाग गयी थी जाल काट काट के।।