कहीं वो तुम तो नहीं....
कहीं वो तुम तो नहीं....
हर शाम की तन्हाई में कोई मुझे चुपके से सहलाता है मेरे अश्कों को कोई सीप में बंदकर के मोती बना जाता है कहीं वो तुम तो नहीं,
मेरे तसव्वुर में कोई अनदेखा सा चेहरा बार-बार नज़र आता है कोई मेरी साँसों को मेरी यादों को हर पल महका जाता है कहीं वो तुम तो नहीं,
जो खफ़ा होती हूँ खुद से कभी कोई मुझको हौले से थाम लेता है ज़िन्दगी है खुलकर जीने का नाम ये अहसास जगा जाता है कहीं वो तुम तो नहीं,
मुश्किल सी राहों में जब लड़खड़ा कर चलती हूँ एक हाथ मुझे थाम लेता है मेरी काली अँधेरी रातों में कोई रौशनी उमीदों की कर जाता है कहीं वो तुम तो नहीं,
ज़िन्दगी की कशमकश से कोई मुझे हर बार उबार लेता है देकर मेरे होठों को मुस्कुराहट ग़म भी मेरे उधार लेता है कहीं वो तुम तो नहीं।