खंडमहल
खंडमहल
ख्वाबों के शहर से मैं गुजरा,
शीशे के महल का एक टुकड़ा,
था, बिखरा बिखरा....!
मैंने पूछ लिया, उदासी का कारण
फिर वो यूँ हाय किया, और
फिर रो पड़ा अपना दुखड़ा,
हाय मैं कांच कोमल,
मैं चीख चीख करूँ पुकार,
कोमल हृदय सोमयनी मेरी,
मुझमे है इतनी स्मृतियां,
झांक देखो मुझमें,
वो बचपन, फिर चिर यौवन,
का लड़कपन,
और बुढ़ापे का स्तवन,
कई पुस्त दर पुस्त की किलकारियाँ ।
फिर आज में हूँ खंडहर जैसा,
हाय मैं दीन बड़ा,
ख्वाबों के शहर से मैं गुजरा,
शीशे के महल का एक टुकड़ा,
था, बिखरा बिखरा....!