मनस्मृति : मनु की संतानों अपनी आत्मा को पहचानो
मनस्मृति : मनु की संतानों अपनी आत्मा को पहचानो
मन मानस के मस्तक पर,
विराजे हैं परमात्मा प्रेम के
भुजाओं में अनुभव,
प्रेरित करते हुए कर्म को
उदर में व्याप्त है कुछ लौकिक घटनाएं
संचालित किये हुए जीवन चक्र
कुछ क्षुद्र वासनाएं पाँव पखारती है गंगा जल से
और ऊर्ध्वगमन करती हुई
परिवर्तित हो जाती हैं प्रार्थना में
इसी प्रार्थना से भाग्य के बहीखाते में
कुंडली मारकर बैठे ग्रह भी
बदल देते हैं शनि की साढ़े साती चाल
ऐसे में समय दबे पाँव आता है
और पलट देता है जन्म का कैलेण्डर
पिछली यात्रा का वृतांत
व्यवस्था बन टंकित हो जाता है
संस्कारों के गुणसूत्रों में
जहां प्रार्थना नहीं होती
वहां कोई कर्मकाण्डी नारायण की सत्य कथा में
चुपके से जोड़ लेता है अपनी व्यथा
कोई गृहणी पल्ले के कोने में बाँध लेती है गाँठ
सारी अला-बला को गरियाती हुई
कोई रति हर रात दस्तक देती है
कामदेव के दरवाज़े पर मुक्ति के लिए
कोई मीरा विष का प्याला
मुंह से लगा लेती है हँसते हुए
और प्रार्थना अपना रूप बदल कर बन जाती है हठ...
तभी कोई हठयोग शुक्र पर्वत की ऊंचाई से घबराकर
रख लेता है जलता अंगारा हथेली पर
मंदिरों और मस्जिदों पर सुकून से बैठे परिंदे
फड़फड़ा कर उड़ जाते हैं...
कुछ स्थिर रहता है तो वो है
मन के स्मृति पटल पर लिखा
ब्रह्माण्ड की व्यवस्था का सूत्र
जो हर बार अग्नि परीक्षा से गुज़रकर
सिद्ध कर जाता है
कि ग्रन्थ अलौकिक ध्वनि तरंगों की
लौकिक संतानें हैं...
जिसका मृत्यु उपरान्त
दाह संस्कार आवश्यक है
तभी तो वो जन्म ले सकेंगी
उन्नत देह में... नए ग्रंथ के रूप में
शाश्वत ध्वनि तरंगों की अगली नस्ल के रूप में...
मनु की संतानों अपनी आत्मा को पहचानो...