ग़ज़ल
ग़ज़ल
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ज़िंदगी फिर से आजमाने लगे
खुद को ही गले लगाने लगे
घोंट कर वो मेरा गला देखो
तोहमत मुझपे ही लगाने लगे
कल मुहब्बत की कसमें खाते थे
आज अपनों को ही रुलाने लगे
दुश्मनों ने लिया न बदला पर
दोस्त खंजर छूरी चलाने लगे
ख़्वाहिशों की किये हैं खुद हत्या
खुद को खुद ही सजा सुनाने लगे
खुश रहो तुम सदा मेरे हमदम
हम तो दुनिया ही छोड़ जाने लगे
स्वार्थ में अंधे हो गए है सब
ख़ून अपनों का ही बहाने लगे
मौत बिन मौत दे रहे है सब
एक दूजे को फिर जलाने लगे
क्यों क़फ़स में रखे हैं अब मुजरिम
जब जहां को कफ़स बनाने लगे
कर "कमल" कोशिशें जरा कुछ तो
गीत फिर प्यार के वो गाने लगे।