बादल
बादल
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साँझ-सकारे उमड़े बादल।
गरज-गरज कर लौट गए फिर
लगते उखड़े-उखडे बादल।
सोचा था तुम आओगे तो
देह-देह का ज्वर उतरेगा।
बूँदों के घुँघरू बाँधे कोई
अंश तुम्हारा पाँव धरेगा।
कितना छलना सीख गए हो
लेकर दो-दो मुखड़े बादल।
बनी नदी जो रेख रेत की
पता नहीं कब चल पायेगी।
गोने की बाट जोहती जो
पता नहीं कब मुसकायेगी।
अग्नि-वर्षा सी कर जाते हो
होकर सौ-सौ टुकड़े बादल।
साँस-सॉंस तक क़र्ज़दार है
मौसम के साहूकारों की।
ख़ून-पसीने का मोल नहीं
मनमर्ज़ी है सरकारों की।
आश्वासन जैसे कोरे हो
दिखते चिकने-चुपड़े बादल।