देहरी
देहरी
आँखों पे ही पूर्ण हो जाता।
उसे दिखते थे मेरे मुस्कुराते आँसू
उसे महसूस होता था
मेरा खिलखिलाता दर्द
तब तक जब तक
देह की देहरी से बाहर था
प्रेम हमारा!
चौखट लांघते ही देह का
वो स्वामी बन बैठा
मेरे मन का
और न चाहते हुए भी
मैं दासी...
उसकी इच्छाओं की
पर उसने तो कहा था कभी...
चुप से कान में
फुसफुसाते हुए
मेरी रूह बन जाओ तुम!
मैं बस तुम्हारे एहसास में जीना चाहता हूँ
मैं बस तुम्हें चाहता हूँ
आहिस्ता आहिस्ता वो
मुझ में घुल गया पानी की तरह
मैं खो गई...
उसके लिखी हुई नज़्म
और गीत बन गई
उंगलियां थी क़लम उसकी
मैं जाने कब कागज़ बन गई
तब अचानक कहा उसने
"तुम बदल गई हो"
अब कुछ भी लिखा नहीं जाता
जो लिखा था वो...
अब मुझ से ही
पढ़ा नही जाता।