बिखरी तकदीर
बिखरी तकदीर
लकीरों से निकल कर
तकदीर के कुछ रोशन टुकड़े
रवाँ-रवाँ से बिखर गए !
ख़फ़ा है शायद
नेमतों का गुब्बार
क्यूँ है आजकल
दर्द ही दर्द बेशुमार !
लाईलाज सी ज़िंदगी में
हजारों रंग थे निखरे हुए,
एक ज़लज़ले ने
आबशार बिखेर दिए !
खिज़ा के बुलबुले
उड़ कर जला रहे हैं,
गर्द ही गर्द का सैलाब है
दिल में सुहाने मंज़र
सिहर गए !
आते हुए लम्हों में
ढूँढ रही हूँ
कुछ रोशन कतरे,
या खुदा बीते हुए लम्हों का
कारवाँ न कहीं वापस मिले !
क्यूँ धनी नहीं किस्मत की
हर खुशियाँ ख़फ़ा रहे,
हर इबादत अर्श की चौखट से
टकराकर वापस मूड़े।
है कहीं कोई आसमान
ऐसा जिसमें दिखे
मुझे कोई चाँद चमकता।