दौर
दौर
ना जाने ये दौर कैसा है
ख्यालों में कंगाली सी छाई है
कुछ शब्द लिख कर सोचता हूँ
आगे क्या लिखूँ कि
ज़िन्दगी मुकम्मल हो बस
फितूर से दौड़ते रहते हैं खाली ज़ेहन में
पर जो सोचो वो कैसे लिख पायेंगे
दिमाग ठहरे पानी सा शांत होने को है
तुम आओ और पत्थरों से
इस झील की खामोशी तोड़ो
कि तुम्हें छोड़ कुछ और ख्याल ना आये।।