ख्वाहिशें...
ख्वाहिशें...
यूं ही टटोलने बैठा था बीते वक्त को आज तो पाया
जैसे सूखे पड़े दरख़्त की अब काई भी उखड़ने लगी है
पर ये अलहदा - सी ख्वाहिशें अब भी पांव पसारे बैठी हैं
तिमिर का प्रतीक बने इन पुरानी यादों को अब
मानो क्षितिज से उगते सूरज से कुछ और भी उम्मीदें जगी हैं...।।