आसिफा
आसिफा
न समझ किसी मज़हब की,
न समझ अखबारों की,
छप गयी उन्हीं में तस्वीर,
एक नहीं हज़ारों की !
उसको क्या पता,
किस मुल्क की वो,
इंसान में ही फिर,
इंसान ढूँढती वो !
रह रह कर आवाज़ कांपती है,
जब भी तस्वीर सामने आती है,
पिता के दिल की दास्ताँ,
घर की खामोशी सुनाती है !
जिसकी हँसी में जन्नत थी,
अब सन्नाटा उसे पुकार रहा,
नम आँखों से हर इंसान,
फिर उसकी नज़र उतार रहा !
जिसमें खुद ईश्वर रहता है,
कण - कण में जिसके बहता है,
और लोग परेशान हो कह रहे,
मंदिर में ऐसा कौन करता है ?