सामीप्य
सामीप्य
अपने कमरे की दीवार पर
लगी घड़ी को देखते हुए,
अचानक यूँ लगा मुझे आज
कि हम दोनों भी सुईयां हैं !
तुम्हारी ठहरी सी शख़्सियत में
घंटे की सुई का आभास हुआ,
और मैं ख़ुद गोया...
सेकंड की एक सुई हूँ;
जो सूर्य के गिर्द धरती की तरह
एक पूर्व-निर्धारित गति से
घूमती ही रहती है हमेशा
चारों ओर तुम्हारे लगातार !
सुई ही होना था मुझे अगर
तो काश मिनट की होता;
तुम्हारे बिल्कुल क़रीब से
यूँ बार-बार गुज़रने से तो
कहीं ज़्यादा देर तक तब
रह पाता मैं पास तुम्हारे !