सागर की प्यास
सागर की प्यास
सागर की प्यास
मन के अशांत सागर में, इच्छाओं की लहरें, एक दूसरे पर हावी होती हैं
दूर कहीं किनारे पर, मंजिल की धुंधली छवि होती है
सागर की बेपनाह प्यास में आत्मा की सदा दबी होती है
फँस जाता है मनुष्य लोलुपता के भवर में, जब उसे ऐसी तश्नगी होती है ।
मन के अशांत सागर में, इच्छाओं की लहरें, अपनी थाई से आगे निकल जाती है
फिर भी उनकी प्रतीक्षारत बाहें, केवल रेत ही कुरेद पाती हैं ।
सागर की बेपनाह प्यास उसकी मिठास को निगल जाती है
रह जाता है मनुष्य अकेला, अन्धकार के नगर में, जब उसे तृप्ति से दुश्मनी होती है ।
ऐ लहर, अब थम जा तू
ऐ मन, अब संभल जा तू
बुझा इस प्यास को संतुष्टि से
लालच की मदिरा में मत घुल जा तू ।
है जल तुझमें अथाह, असीम
इस प्यास को अब भूल जा तू ।
बच जाए मनुष्य जो तृष्णा के ज़हर से,
तो ज़िन्दगी आप ही बंदगी होती है,
तो ज़िन्दगी आप ही बन्दगी होती है ।