क्यूँ टूटता जा रहा इंसान
क्यूँ टूटता जा रहा इंसान
हँसता खेलता बचपन थकता अब बस्ते का बोझ सम्भाल
हर उम्र में दिखता अब तो अंदर से टूटता इंसान
माँ बाप की उम्मीदों पर खरा उतरना इनको करे परेशान
कैसे मुँह दिखाओगे जग को जब न पा सकोगे मुक़ाम
यही सोच घबराता मन हुआ विफल तो घट जाएगी शान
फिर मन और दिल की बातें किसी से न कर पायें बयान
अंदर ही अंदर घुटता प्रतिपल सोच लेता छोड़ने को जहां
चल देता शून्य शिखर पर पीछे छोड़ हज़ारों सवाल यहाँ
नर हो न निराश करो मन को ज़िन्दगी जो दे उसको स्वीकारो
चार लोगों की बातें छोड़ घर के चार सदस्यों को पुकारो
कह दो खुल के मन की बात निकाल दो मन का ग़ुबार
पीड़ा को वो समझेंगे,करेंगे तुम्हें उसी रूप में स्वीकार
कोई न सही दोस्त तो ज़रूर समझेगा,अगर है सच्चा यार
जीवन सरलता से जियो तुम्हें भी हो जाएगा ज़िंदगी से प्यार।