वो कागज़ का टुकड़ा
वो कागज़ का टुकड़ा
आज सोचने बैठा जो
पिछली बातों को
रोक न पाया
उन पुरानी यादों को।
आज गैजेट्स के ज़माने में
खत किसे याद हैं!
कागज़ का टुकड़ा कहना
शायद सही अल्फ़ाज़ है।
वो कहानी थी पुरानी
'पेन पाल' बनने की थी ठानी
अनजान व्यक्ति को
पत्र के माध्यम से दोस्त बनाना
हम कॉलेज के लड़कों में ट्रेंड था।
छुपते छुपाते ही सही
मेरा भी कोई फ्रेंड था।
उसकी बातों में ढेर सारा
ज्ञान होता था
पढ़कर उसकी बातें मैं
हैरान होता था
समय के साथ दोस्ती
गहराने लगी थी
वो कोई लड़की थी ,
इशारों में बताने लगी थी।
जिस दिन खुल कर खुलासा हुआ
मैं घबराने लगा था
माँ पापा के डर से
पसीना आने लगा था।
उस समय ये सब
पाप समझा जाता था
ऐसी औलाद को
श्राप समझा जाता था।
वो हमेशा पत्रों में
संसार की बातें करती
अच्छे विचारों ज्ञान और
संस्कार की बातें करती
पर मेरी खामोशी का मतलब
वह भाप चुकी थी
मेरे विचलित मन को भी
वह जांच चुकी थी
अपने अगले पत्र में
उसने मुझ को समझाया
मेरे पते पर पहली बार
जब पत्र तुम्हारा आया
तुम लगे बहुत शालीन सुलझे
तब ही दोस्त बनाया।
मैं चाहती थी सच्ची दोस्ती
अपनी भावनाओं को
शब्दों में ढालना था,
मेरा उद्देश्य तो उदासी
से दूर था भागना
तुम्हें किसी विपदा में
नहीं डालना था।
यदि तुम्हें बुरा लगा
तो बतलाना मत,
बस कोई पत्र न भेजना!
आपत्ति नहीं यदि कोई,
तो बताना
इस दोस्ती को यू ही सहेजना।
पढ़कर वह खत
मन का डर भागा
दोस्ती का कीड़ा
फिर से जागा।
लम्बा चौड़ा खत मैंने,
लिखकर किया तैयार।
पोस्ट करने कमरे से निकला,
घर में अलग ही थी बहार।।
वहाँ मेरी शादी की
बात तय हो रही थी
अब मेरी चेतना
फिर से खो रही थी
आज तीस बरस बाद भी
वो घटनाक्रम सामने खड़ा है
वो कागज़ के टुकड़ा आज भी
मेरी डायरी में पड़ा है।