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Kanchan Jharkhande

Abstract

5.0  

Kanchan Jharkhande

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ज़िक्र संगीत का है

ज़िक्र संगीत का है

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ज़िक्र संगीत का है तो

मुद्दा दूर तलक जायेगा

आधुनिक यन्त्रणा की प्रताड़ना को

शब्दो मे कौन व्यक्त कर पायेगा


क्या खो गया इंसान 

यहाँ तक सँस्कार भी है बिक चुके

क्या खूब थी वह प्राकृतिक धुन

क्या खूब थी कोयल की गुनगुन


उस झरने की आवाज़ में

क्या गज़ब का था सुकून

नदी भी करती थी कलकल

क्या सौंदर्य था उसका 


क्या आवागमन था

चिड़ियाँ की चहचहाट भी 

विहीन सी हो गई

रोज सुबह की वो सब धुन


कहाँ खो गई न जाने अब

खो चला वास्तविक संगीत

खो चला वो पागलपन

गर व्यक्त करूँ मैं भविष्य व्यथा


तो कुछ यूँ होगी आने वाली सुबहें

प्रदूषण की आड़ में

सब जगह निर्वात होगा

या होगा फिर 

अशुद्ध वायु का प्रवाह


स्वास्थ्य भी रुग्ण होगा

अवशेष रह जाएंगी तो केवल

अर्वाचीन की गानविधा

खो गई वो प्रकृति की लय

खो गई वह सुर विधा


जब आधुनिक युग का बच्चा एक

किताबों का वाचन करेगा

प्रकृति के संगीत सुरमयी

पंक्षियों का स्मरण करेगा

ओर महसूस करेगा


लोपित संगीत को

तब प्राचीनमय संगीत

स्त्रोत बनेगा मधुर मनभावन का

ओर दुनिया पुनः चाहेगी

प्राचीनकाल के उस संगीत को

श्रवण करना


और दौड़ेगी पुनः प्रकृति के उस

सौंदर्यरूपी चहचाहट को

सुनने के लिए आतुर होगी। 


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