कामना
कामना
कामना यही है हृदय की,
कि कर दूँ देह का त्याग
बहुत हुई चाकरी इसकी
और बहुत हुआ अनुराग
पर बुद्धि पड़ी फिर भारी
इसपे करती सोच विचार
अरे मोह बिना तू मनुष्य नहीं,
कर चाहत का संहार
स्वयं की तलाश क्या
तुझको फिर से अब करना है ?
या जीवन में इसी तरह बस
खप - खप कर मरना है ?
इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर
न तुझको कहीं मिलेगा
स्वयं पर किया घाव जो तूने,
उसको कौन सिलेगा ?
जीवन रूपी काव्य है ये,
इसमें रस विभिन्न भरे हैं
निज रस को चिन्हित करके ही
अनेकों जन तरे हैं
प्रभु ने भी अवतार मनुज का
लिया भेद समझाने को
तुझको इस धरा पर भेजा
लक्ष्य अनगिनत पाने को
समर है ये कठिनाई का
इससे तुझको न डरना है
स्मरण रहे बिना लड़े
न इसमें तुझको मरना है
न तुझको तब दुःख होगा
न सुख की होगी अनुभूति
विशाल विघ्न बौना होगा
प्रकृति की होगी प्रतिभूति
बस लक्ष्य को अपने अंकित कर ले,
तू आगे बढ़ जाएगा
बाधाओं का हरण तू करके,
ध्वजा विजयी लहरायेगा
एक दिन होगा ईश्वर
तुझको स्वयं लेने आ जाएगा
पाप - पुण्य सब धरे रहेंगे
जन अवाक् रह जाएगा
विलाप करेगी वसुधा तब
अपना लाल गँवाने का
हर्षित होगा उर तेरा,
होगा लेश नहीं फिर जाने का !