हिमांचल में
हिमांचल में
चंद रोज़ के लिए ठहरा हूँ तुम्हारे क़स्बे में
तुम नहीं हो ये जानकर भी.....
ढूंढता रहा तुम्हे बहती व्यास के किनारे।
बहुत देर तक बैठा रहा उस चिनार के नीचे,
जो तुम्हारे घर के रास्ते के दरम्यान पड़ता था।
मुझे अपने क़स्बे में बुलाने की तुम्हारी ज़िद थी न,
मैने अब पूरी कर दी है, कुछ देर से ही सही...
ज़रा सा ही तो वक़्त बीता है,
ज़रा से कुछ दसियों साल बस....
तुम्हीं तो अक्सर कहा करती थीं न,
कि पहाड़ों में दिन जल्दी ढल जाते हैं,
और रातें बहुत लंबी चलतीं हैं।
तुम्हारा दिन तो न बन सका
मगर मैं रात बनकर आया हूँ,
ढ़लूँगा नहीं अभी लंबा चलूँगा...
ढ़लूँगा नहीं अभी लंबा चलूँगा।।