गूँगी आँखों का विलाप
गूँगी आँखों का विलाप
तुम्हें पहचानने में कहीं देर न हो जाऐ
नहीं चलने दूँगा
तुम्हारे खिलाफ़ अपने मन की बेईमानी
नहीं बढ़ने दूँगा
तुम्हारे खिलाफ़ अपने उठे हुऐ कदम
नहीं सोने दूँगा
तुमसे बेफ़िक्र रहकर जीती हुई शरीर
मजाल क्या कि,
तुम्हारे सपनों का सपना देखे बगैर
मेरी आँखें चैन से सो जाऐं
गहरी लकीरों से पटे
तुम्हारे निष्प्राण चेहरे का
असली गुनहगार कौन है?
जीवन के हर मोर्चे पर
तुम्हारी शरीर को ढाल बनाने वाला
मेरे सिवा कौन है?
यह मैं ही हूँ
जो तुम्हें तुम्हारे ही देश से
बेदखल करता रहा हूँ निरंतर
भीतर बाहर से
टूट - टाट चुकी तुम्हारी शरीर को
सहलाने का जी क्यों करता है?
क्या है तुम्हारी आँखों में कि
सदियाँ विलाप करती हैं
तुम्हारा मौन चेहरा
हमें धिक्कारता ही क्यों रहता है?
तुम्हारे मुड़े तुड़े ढाँचे को देखकर
मैं अपनी ही नज़रों में क्यों गिरने लगता हूँ?
रोम रोम पर दर्ज़ है
तुम्हारे ख़ून पसीने का कर्ज़
मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से
तुम्हारे पैरों के निशान
गूँजता है सीने में
तुम्हारे सीधेपन का इतिहास
मचलता है मेरी आँखों में
तुम्हारी गूँगी आँखों का विलाप|