हमारे जूते कौन चमकाएगा
हमारे जूते कौन चमकाएगा
एक आदमी अपने हाथ गन्दे करके आपके पैर चमकाता है
बदले में आप साहब, वो मोची कहलाता है
ये दुनिया सदियों से यूँ ही चल रही है
मज़दूर
मज़दूर जो अपने पसीने से आपकी तिजोरी सींचता है
ग़रीब का ग़रीब रह जाता है और वक़्त के साथ
आपके और उसके बीच का फ़ासला बढ़ता चला जाता है
बच्चे
बच्चे जो बिना किसी वसीयत लिए पैदा होते हैं
पैदा होते ही उनका बही-खाता सामने आता है
कुछ पे सोने की मुहर होती है, बाप दादाओं की
कुछ की क़िस्मत में चार दीवारें और एक छत भी नहीं होती
फिर हम उन्हें सिखाते हैं, मेहनत करना, पाप से बचना, धर्म पे चलना
बच्चे
बच्चे जो आपकी आवाज़ सुनके सब सीखते हैं
कभी हरियाणवी तो कभी मलयाली बोलने लगते हैं
हमने इन्सान को कभी इन्सान होने ही नहीं दिया
कभी बिहारी तो कभी मल्लू
हमने दौलत की इतनी मोटी दीवार खींच दी है
कि शायद इन्सान मिट जाए, ये दीवार न मिटेगी
और अपनी चार बातूनी सहेलियों के बीच कमसिन सी एक लड़की
ज़िन्दगी भर प्यार को यूँ ही तरसेगी
दुनिया में सब ढूँढ़ रहे हैं मगर किसी को मिल नहीं रही
मुहब्बत
मुहब्बत कुछ इस तरह नज़रों से ओझल है
भरोसा
भरोसा तो अब किसी पे रहा नहीं
कोई मेरे लिए क्या कर सकता है
ज़िन्दगी अब इस तराज़ू में तुलने लगी है
दाल-रोटी के इन्तिज़ाम में मुहब्बत पीछे रह गई है
अब आशिक़ भी धन्धे वाले हो गए हैं
क्योंकि महबूबा को जवानी से ज़्याद बुढ़ापे की फ़िक्र है
अरमान
अरमान किसी दस्तख़त की काली कोठरी में पड़े सड़ रहे हैं
शादी के बाद मुहब्बत गुनाह हो गई है
धड़कता दिल
धड़कता दिल अब भी फ़र्क़ नहीं कर पाता है
और दाल-रोटी देने वाले का चेहरा सामने आ जाता है
और वो चेहरा
वो चेहरा जो दिल के किसी कोने में हमारे साथ सिसकता है
वही चेहरा जो एक पल में रुला देता था
और एक पल में ही हँसा भी देता था
वो चेहरा
वो चेहरा अमीरी ग़रीबी के दलदल में कहीं डूब जाता है
और फिर हम उसपे मज़ारें बना देते हैं लैला-मजनूँ की
और याद करते हैं किताबों में
था कोई, जिसने मुहब्बत भी की थी
हमें तो दाल-रोटी से फ़ुर्सत नहीं
ये दुनिया सदियों से यूँ ही चल रही है
और हम नारे भी लगाते हैं
ये भूलकर कि हमारी आवाज़
जो एक दिन मिट्टी में दब जानी है
फिर भी हम ख़ुद को अच्छा बताते हैं
दूसरे को नीचा दिखाते हैं
क्यूँकि सामने वाला भी अगर हमारे कन्धे बराबर खड़ा हो गया
तो हमारे जूते कौन चमकाएगा