इश्क़ भी कभी औरों के भरोसे
इश्क़ भी कभी औरों के भरोसे
जिसे चाहिए वो खुद इस के तस्सवुर में आए
इश्क़ भी कभी औरों के भरोसे किया गया है क्या
मेरी प्यास बुझाने को ये मैक़दे अभी नाकाफ़ी है
तुम्हारी निगाहों के सिवा भी मुझसे पी गई है क्या
चाँद होगा हुस्न का माहताब आसमाँ में
इस ज़मीं पे हुस्न की मिसाल तुम्हारे अलावे दी गई है क्या
तुम्हारे तबस्सुम में जो ये लपकता शरारा है
बताओ तो ज़रा ये आग सूरज की बुझा ली गई है क्या
कस्तूरी सी ये फ़िज़ाएँ महकने लगी है अचानक
देखना तो ये हवाएँ छूके तुम्हें भी गई हैं क्या।।