प्रेम प्रथम किन्तु अंतिम
प्रेम प्रथम किन्तु अंतिम
दुल्हन की बहन हो और,
इश्क़ न हो कैसे हो सकता है ?
बारात भाई की थी,
और दूल्हे हम हो रहे थे,
पहले प्यार की बारिश में तर हो रहे थे।
ढोल से ज्यादा दिल मेरा शोर कर रहा था,
अब तक तो केवल सुना था,
पहली नज़र कातिल होती है,
आज खुद मर के देख भी लिया था।
छत की मुंडेर से ताकती उसकी नज़रे,
बालों से लटकती हुई गुलाब की लड़ी,
खिसकने की ज़िद पे अड़ी हुई चुनरी,
और मेरी अटकी हुई साँसे,
बस छूटने को तैयार थी।
इस बीच मेरा पैर दुश्मन बन बैठा,
ओर मैं गिर के जमीन पे आ बैठा,
नजर छत पे टिकी हुई थी,
और इसकी हँसी खिली हुई थी।
फिर एक अजीब-सा एहसास था,
उसकी नज़रो में फिक्र साफ थी,
मेरे पैरों में मोच और दिल में वो थी,
उसने अपने हाथों से उठाया और,
अब तक संभाले रखा है,
हमने पहले इश्क़ से इश्क़ कर रखा है।