पतझड़
पतझड़
बिलकुल नहीं भाते हो तुम मुझे,
कि तुम्हारे आने से,
शुष्क, बाँझ डालियाँ,
मुरझाए फूल,
रंगविहीन धरती
और सड़कों के किनारे कुछ सूखे भूरे-नारंगी पत्ते।
ना कोई हर्ष ना उल्लास,
ना आशा की कोई कोपल फूटती,
ना तुम्हारे आश्रय में कोई घरौंदा पनपता,
और फलने फूलने का एहसास भी जाता हुआ।
कि तुम संग ले आते हो-
कुंठित सवेरा,
सूखी दोपहरी,
एकाकीपन की साँझ,
एहसास सख़्त और निर्जीव सा होने का।
परंतु देखो ना!
फ़्लैट की बाल्कनी से जब बाहर झाँकती हूँ,
और पूर्णमासी के चाँद में नहाए हुए तुम,
तुम्हारे वृक्ष, तुम्हारी डालियाँ, तुम्हारे फूल,
सब आभास कराते हैं।
कि सब खो कर भी दृढ़ता से खड़े रहना,
पुराने रंगों के धूमिल होने पे भी,
नए रंगों से साक्षात्कार के लिए
स्वयं को तैयार रखना।
और सख़्त होकर भी सहेजे रखना क्षमता-
फिर से किसी कोपल के फूटने की,
फिर कई घरौंदे बसाने की,
फिर से महकने की।
यही तो जीवन है!!!
और मुझे प्रेम हो जाता है तुमसे, फिर से !