एक तलब चाय की..
एक तलब चाय की..
देखो न
वक्त के साथ
सबकुछ बदल जाता है
पर नहीं बदलती है
तो आदतें
वो सुबह -सुबह की चाय
माँ के हाथों की...
बेशक अब भी पीती हूँ, चाय
पर वो जायका नहीं
जो माँ के हाथों से
बनी चाय में होता था।
सुबह चार बजे
उठकर पढ़ना हो
तो अक्सर पापा
बनाते थे चाय
धीरे-धीरे आदतें बदली
ब्रम्हमुहूर्त की जगह
मध्यरात्रि तक पढ़ना
एक नशा सा हो गया।
ये रात की चाय
खुद ही बनानी पड़ती थी
देर रात जागने की वजह से
मीठी डॉट भी पड़ती थी
समय के साथ
सब बदलता गया
चाय तो नहीं बदला
चाय के साथी बदलने लगे
माता-पिता, भाई-बहन
की जगह
जीवन साथी ने ले लिया
अब भी तो अच्छा लगता
है चाय पीना
उनके साथ
वक्त की रफ्तार
कुछ पल ही सही
थम सी जाती है
जब हम दोनों साथ में हो
और जब वो करीब न हो
तो हर चुस्की में
उनकी याद आती है
कभी -कभी एक घूँट
पीकर छोड़ देती हूँ
अकेले चाय
भला अच्छी किसे लगती है।
वक्त के साथ सब बदलने लगे
पर एक हाथ में चाय
और दूसरे में किताब
कभी नहीं बदला
न कभी बदलेगी ये आदत