ग़ज़ल 6
ग़ज़ल 6
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उस वेवफ़ा की याद से , निस्बत अजीब थी
राही थे एक राह के , क़िस्मत अजीब थीं।
वो जिसको ढूँढता रहा पहचानता न था
गुमनाम शख़्स की भी तो,फ़ितरत अजीब थी।
ता उम्र शख़्सियत जो के चर्चाओं में रही
अल्लाह के बन्दे की भी, शोहरत अजीब थी।
आवाज़ गूँजती रही दीवारों दर के बीच
कच्चे पुराने घर की भी खिलबत अजीब थी।
नज़रों से दूर तो गया , दिल से न जा सका
उस दौर ए रब्त ओ जब्त की फुरकत अज़ीब थी।
उस दौर ए रब्त ओ जब्त की फुरकत अज़ीब थी।
वो मुफ़लिसी के दौर में भूखा नहीं रहा
माँ की रसोई में भी तो बरकत अजीब थी।
बेजान शाख़ पर भी कोई घोंसला बने
सूखे दरख़्त की भी ये हसरत अजीब थी।