माँ
माँ
माँ हद-ए-दीद में है मन्ज़र-ए-क़ुदरत जैसे,
फ़ैज़-ए-माबूद की बेथाह लताफ़त जैसे,
माँ अलामात-ए-इलाही की अलामत जैसे,
हक़ की आयत में हो यूँ बोलती आयत जैसे,
जिसका एहसान लिए वक्त के रहबर आए,
गोद में जिसके इमाम आए पयम्बर आए।
उसकी आग़ोश-ए-मुहब्बत जिसे बस कहिये जिनां,
इसका एहसान है अल्लाह की रहमत का निशां,
जाद-ए-रब्त में कोइ भी नही माँ है जहां,
दीं की मन्ज़िल में है बात इसकी ख़ुदा का फ़रमां,
हिज़्र-ए-जाँ कहते हैं तावीज़-ए-अमां कहते हैं,
ऐ ज़हे ज़ाते गेरामी जिसे माँ कहते हैं।
जाग कर काटती है रात कि सोए बच्चा,
होके ख़ुश सहती है हर दुख कि ना रोए बच्चा,
मुज़तरिब रहती है बेचैन ना होए बच्चा,
जाम-ए-एख़लास में सीने लहू घोल के जो,
रिज़्क पहुंचाती है बेनाप के बेतोल के जो।
बदगुमानी का तसव्वुर में समाना है ख़ता,
मां की जानिब निगहे तेज़ उठाना है ख़ता,
उफ़ भी मादर के लिए होंठो पे लाना है ख़ता,
सिर्फ़ नेकी ही नही ये अम्रे ख़ुदा वाजिब है,
मर्ज़िए हक़ की तरह माँ की रज़ा वाजिब है।