ढ़लता सूरज
ढ़लता सूरज
मैं उगता सूरज ऊषा के साथ धरा पर आता हूँ,
भगवान सा पूजा जाता हूँ आर्ध्य देकर लोग मुझको,
नमन करते हैं नतमस्तक होकर मेरे समक्ष,
मुझको आदर देते हैं, मैं भी धरा पर अपना सर्वस्व,
अर्पण करता हूँ , दुनिया चलती है मेरे प्रकाश से,
दुनिया को मैं रोशन रखता हूँ,
खेतों खलियानों में, जंगल बियाबानों में,
मैं अपनी किरणें बिखराता हूँ, बारिश से भीगे खेतों को मैं,
अपनी गर्मी देता हूँ , ठंड से कांपते शरीर को,
मैं धूप की चादर देता हूँ,
जमती है जब बर्फ धरा पर, तब मैं ही उसे पिघलाता हूँ,
तपता हूँ मैं रोज़ अग्नि में, किंतु सबको जीवन देता हूँ।
किंतु जब मैं ढ़लता हूँ, मुझे कोई नमन नहीं करता है,
थके हुये मेरे तन को, कोई आर्ध्य नहीं देता,
नहीं चाहता मैं कीचड़ मिट्टी से सने हाथ,
चौबीस घंटे काम न करें, इसीलिये मैं ढ़लता हूँ।
जाते जाते संध्या और चंदा को, आमंत्रित करता हूँ,
ताकि तपती धरा पर, शीतलता भी वास करे,
धूप से जलते श्रमिकों को, ठंडक का आभास मिले,
स्वेद की बहती बूंदों को, राहत का अहसास मिले,
इसीलिये मैं ढ़लता हूँ, ताकि मेहनतकश इंसानों को थोड़ा सा विश्राम मिले।
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