ज़िंदगी
ज़िंदगी
ज़िंदगी तुझपे मेरा, अब इख़्तियार ना रहा
मैं मनाता ही रहा, तू रूठती चली गई ।
वक़्त के ये धारे, अब धुंधले होने लगे
एहसास की नदी में, रेत से जमने लगे ।
मुसाफिर कई मिले, अनजान सफ़र में
हसरतो के आशियाँ, आँखों में लिए हुए ।
ऐतबार करना मगर, बहुत मुश्किल यहाँ
जख्मी दिल अक्सर, सहमा सा रहता है ।
ज़िंदगी मुझको तेरा, बस इंतज़ार ही रहा
मैं पास आता रहा, तू दूर होती गई ।
छुप कर बैठी है, तू गर्दिशो में कहीं
कभी तो झांक इधर, मैं तन्हा खड़ा हूँ ।
सुना है कई रंगो से, मिलकर तू बनी है
मुझे भी दिखा कभी, सुनहरे सपने तेरे ।
ज़िंदगी तुझपे मेरा, अब इख़्तियार ना रहा
मैं लिखता ही रहा, तू मिटाती चली गई ।।