मिटटी, धूप और पानी !
मिटटी, धूप और पानी !
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कई बार और कई ऐसी जगह भी,
अंकुरण मैंने देखा है;
जैसे दो ईंटो के बीच से अंकुर को,
फूटते हुए मैंने देखा है;
ऊँची-ऊँची दीवारों पर पीपल को भी,
उगते हुए भी मैंने देखा है;
मेरी नज़र में ये मिलन बस यही कहता ,है
जंहा जरा सी मिट्टी को मैंने देखा है;
जहाँ जरा सी धूप को मैंने देखा है,
जहाँ जरा सी नमी को मैंने देखा है;
वहाँ वहा एक अंकुर के अस्तित्व को,
भी मैंने देखा है;
जहा भी मिटटी, धूप और पानी को,
एक साथ देखा है मैंने,
स्त्री को मिट्टी, पुरुष को धूप
प्रेम को पानी,
होते हुए देखा है मैंने !