दर्पण
दर्पण
दर्पण जो आज देखा वो मुंह चिढ़ा रहा था
चेहरे की झुर्रियों से बीती उम्र बता रहा था
कब कैसे-कैसे वक्त सारा निकल गया था
कुछ याद कर रहा था मैं, कुछ वो दिला रहा था,
नटखट भोला-भाला बचपन कितना अच्छा होता था
जब बाहों में मां के झूले-झूला करता था,
धमा चौकड़ी संग अल्हड़पन सब पीछे छूट गया था
इस आपाधापी के जीवन में वो भी बिसर गया था,
कब उड़ान भरी हमने, कब सपना मीठा देखा था
सच में सब कुछ वो बहुत रुला रहा था,
कब हंसे कब रोया, हमने क्या कैसे पाया था
गिनती वो सारी की सारी करा रहा था,
मैं रो रहा था और वो मुझ पर हस रहा था
क्यों नहीं हमने सबको सहेज कर रखा था
पछता के अब क्या वो ये जता रहा था,
जो बीता वो ना लौटे वो यही समझा रहा था
अब समझ रहा था मैं, जो वो कहना चाह रहा था
आने वाले पल के लिये वो तैयार करा रहा था।