तू छोटी थी तो अच्छी थी
तू छोटी थी तो अच्छी थी
तू छोटी थी तू अच्छी थी
यह लफ़्ज़ किसी और का तो पता नहीं,
पर मैंने सुने है हर एक बार
जब विद्रोही बनी थी एक बढ़ती बच्ची।
नहीं नहीं यह विद्रोह 1945 के
ज़ख्मी सैनिको जैसा नहीं,
पर छोटे से परिवार में पनप रहे
भेद भाव पर था
क्योंकि इस बढ़ते दिमाग को
यह समझ आने लगा था की
वो अपने भाई जैसी होकर भी
उससे अलग है,
वो कमज़ोर नहीं पर उसको
कमज़ोर समझ लिया है।
उसके बड़े होने के बावजूद
उसको इतना कमज़ोर की
वो अपने कपड़े स्वयं निकाल
भी न पाये,
और मुझे कुछ यूं की तू
अपने कपड़े के साथ उस तक के
कपड़े धो डाले।
चकित मैं इस बात से थी की
उसकी कमज़ोरी से दुखी
एक बड़ा भाई नहीं पर
उसकी छोटी बहन थी,
उसकी कमज़ोरी के भ्रम को
दूर करने की एहमियत
एक मर्द नहीं औरत जतलाती थी।
चाहत है मेरी कभी यह भेदभाव न हो,
कोई भाई बिना हाथ में मेंहदी लगाये
कमज़ोर न हो,
किसी नारी को अपने को
अपनी भारतीय नारी महसूस न हो।