कभी यूँ भी
कभी यूँ भी
ज़ेहन में कौंध गईं स्मृतियां
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम, एक चित्रलिपि सी
एक बीजक मंत्र सी
अबूझ पहेली थीं
जब पत्तियां थीं, फूल थे
पर सिर्फ मैं नही था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित, विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
इतिहास बनाती तुम
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
जो कहीं न था नोटबुक में
उसे ही पढ़ने की जिद
...कभी यूं भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी
मेरी ही आवाज़ की
नदारद था तुम्हारा उच्चारा
मेरा नाम
ऐसी कैसी कोयल, कूकने को
राजी न थी जो
मुझे लगा तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य
रुग्ण हो जैसे
जैसे पानी में उतरी परछाईं
जो डूब गई हो
मुझे बिठा कर किनारे पे
लौट जाने के लिए
कभी यूं भी