“ आशियाँ ”
“ आशियाँ ”
पीपल के पेड़ के नीचे, बनाया उसने आशियाँ
सिर्फ उसका, उसका ही था वो जहाँ
जिंदगी से कुछ पल चुराकर, जहाँ जाकर,
बिठाती खुद को खुद के पास ले जाकर
सबसे हसीन थे ये पल,
जहाँ खुद में खुद को पाकर, खुद ही खो जाती
अपने को जहाँ से आगे आती
जिंदगी की किताब का हर एक पन्ना
जो उसने स्वयं था बुना
हर दिन खोलती, और उसी में गुम हो जाती
कभी छूती, सहलाती, कभी पकड़ने दौड़ती
समय की बहती धारा को पीछे छोड़ती
याद आते थे वो पल, जो धडकनों ने सुने,
कुछ ख्वाबों ने बुने, रखती सिरहाने
जैसे लगे कोई मीठी नींद सुलाने
अब होता था ऐसा अक्सर,
मधुर ठंडी हवा का अहसास जैसे छू लेता था रूह तक
एक दिन हुआ ये भी, किसी ने चुराने चाहे पल ये भी
पर उन गुजरे पलों ने दिया था, हौसला अटल
अडिग सी रही वो अविचल,
यही सुनहरे पल तो है, उसके हमसफ़र
चाहे कितनी टेढ़ी क्यों न हो डगर,
चलेंगे ये हमकदम बनकर हर पल
यादों की खिड़कियाँ सी खुल जातीं
उसकी तरफ हाथ बढ़ातीं और सहेली बन जातीं
फिर कहाँ अपने को अकेला पाती
हंसती, गुनगुनाती, कभी सूनी डगर पर
पायल सी झनक जाती
इन लम्हों में जब जाती थी ग़ुम,
ढूढ़ने का करते थे हम परिश्रम,
काम नहीं न आता था कोई उपक्रम,
शायद खुदा के अतिरिक्त सबका साहस था कम.