कुछ ज़ख्म
कुछ ज़ख्म
भूलना आता ही नही मुझे..
तो तुझे ए अजनबी मै भूलाऊ कैसे..
चलो तुझे तो मै भूला भी दूँ
पर उन ज़ख्मो का क्या करूँ,
जो भूलकर भी भूलाये नहीं जाते..
वो ज़ख्म तुझे भूलने देते ही नही..
मै जब जब तेरी यादो से तड़प के टूट जाती हूँ..
तुझे तो पता भी नही
किस कदर मै खुद को संभालती हूँ..
कभी रोती हूँ..
कभी रोते रोते हँस पड़ती हूँ..
तेरी यादो से जब मै लड़ती हूँ..
तो खुद को मै भूल जाती हूँ..
दिल का दर्द दिल मे दबा दबा सा है..
वो ज़ख्म अभी भी हरा हरा सा है..
मै आज भी तुझसे बात करने को तरसती हूँ..
तू क्या जाने किस कदर मै तड़पती हूँ..
कोई शख़्स पास नहीं होता..
कोई दर्द सूनने वाला नहीं होता..
उस वक़्त का आलम क्या बताये किसी को..
लफ्ज़ो में वो दर्द बयान मुझसे नहीं होता..