घंटाघर में चार घड़ी
घंटाघर में चार घड़ी
बचपन की छोटी कविता, आई मुझको याद बड़ी
घंटाघर में चार घड़ी, चारों में ज़ंजीर पड़ी
घंटाघर सा है भारत, यहाँ पे घड़ियाँ चार हैं
एक के काँटे सरक रहे हैं, बाक़ी तीन बेकार हैं
यही घड़ी जिसके पीछे, सेल सनातन पड़ा हुआ
इसका पर हर काँटा है, अपनी ज़िद पर अड़ा हुआ
पहला बोले मैं हिंदू, दौड़ रहा जैसे घोड़ा
मँझला वाला अमनदूत, जो घिसटे है थोड़ा-थोड़ा
छोटा वाला समरजात, कुर्बानी परिचायक है
शूलविहीना घड़ी कहो, किस पूजन के लायक है
सेल सनातन सोता है, छुप के बैठा रोता है
सबकी मतियों की ज़िद में, अपने मायने खोता है
काँटों ने यतियाँ भूली, आपस में झगड़े करते
यही घड़ी जिसमें बसते, फिर भी हैं कटते-मरते
अपने घर का मान नहीं, बस अभिमान बसा मन में
अपनी धुन में जीते हैं, यही रह गया जीवन में
गतियाँ ऐसी हैं भाई, इससे सहा ना जाता है
जिसमें तीनों रहते हैं, हिंदुस्तान कहाता है