कल्पना
कल्पना
"सुबह-सुबह,
जब मेरी बूढ़ी, पथराई सी आँखें खुलीं..
तो देखती हूँ,
अपने समझदार बेटे को,
अपने सिरहाने के पास खड़ा..
उसकी आँखों में वही स्नेह नज़र आया..
जो बचपन में हर वक़्त नज़र आता था..
मेरा जवान बेटा,
अपनी इस बेबस, लाचार, बूढ़ी माँ को
अपनी भुजाओं का सहारा देकर उठाकर बिठाता है...
और देता है मुझे चाय का वो प्याला...
और पूछता है कि
"माँ, मेरी प्यारी माँ अब तुम कैसी हो ??"
एक दर्द भरी आह्हहहहहह निकली..
इस बुढ़िया के सीने से...
और तेरा बचपन, तेरी शरारतें,
मेरे सीने से लगके सोना,
मेरे बिन एक पल न रहना,
मैं अगर उदास होती थी
तो अपने ऩटखटपन से मुझे ख़ुश करना...
याद है ना बेटा? याद है ना??
अब तू बड़ा हो गया..
और समझदार भी...
मैं जागती थी तेरे लिऐ रात भर,
पर तू बहुत दिनों से नहीं आया मेरे पास..
यह जानने को कि मैं सोई या नहीं?
तेरी छोटी सी चोट पर बहुत रोती थी मैं..
पर तुझे कराहना सुनाई नहीं देता..
मैं कभी "लाल...लाल" कहकर नहीं थकी..
एक अरसे से तेरे मुँह से "माँ....माँ" नहीं सुना..
मेरे लाल.... मेरे बेटे.....
मुझे तुझसे कोई शिकायत नहीं,
माँ हूँ ना...
जानती हूँ कि तू एक दिन आऐगा,
मेरे पास सिरहाने खड़ा होगा..
अपनी बूढ़ी माँ को.. उठाऐगा
और देगा मुझे वो एक प्याला चाय का...
इतना सुखद एहसास था
मैं महसूस कर रही थी..
कल्पना कर रही थी..
तभी एक कड़क, तीखी गाली
मेरे कान में पड़ी..
जो निसंदेह, मेरी बहू की थी..
औऱ मैं बूढ़ी, असहाय बेबस,
लाचार, माँ...
अपनी "कल्पना" के संसार से बाहर आ गई...
और सुनने लगी, गालियाँ...