मेरे शहर में फिर से चुनाव हो गये
मेरे शहर में फिर से चुनाव हो गये
मेरे शहर में फिर से चुनाव हो गये,
मैं हिन्दू और रहीम चाचा मुसलमान हो गये।
कैसे हम बाटें इन्हें ये राजनीति के काम हो गये?
छोटी-छोटी बातों पर दंगे भी आम हो गये,
मेरे शहर में फिर से चुनाव हो गये।
मिल के रहने वालों को फिर से,
मंदिर और मस्जिद के नाम बाँट दिया।
इतने से भी नहीं माने वे,
जातियों को भी बाँटने का काम किया।
लोकतंत्र में जनता को सरेआम फरमान दिया,
कुछ इस तरह से पंडितों और मौलवियों ने भी अपना काम किया।
बैठ के सोचता हूँ अक्सर इन दिनों मैं,
समानता की बात करने वाले क्या अमावस के चाँद हुए।
ये बुद्धिजीवी लोग कब अपना फर्ज़ निभायेंगे?
सरकारें बाँट देंगी लोगों को तो क्या,
फिर ये अपने मतानुसार अलग-अलग नेताओं को गरियांगे।
यही वक्त होता है जिम्मेदारियों को समझने और समझाने का,
लोगों को लोकतंत्र और समता के मायने बताने का,
बनके मूलशंकर इन कर्म-कांड करने वालों की वाट लगाने का,
लोगों को साथ मिल-जुलकर रहने का मतलब समझाने का।
अभी कोशिश करोगे तो समझा पाओगे,
कयामत के दिन तुम भी अल्लाह को मुंह दिखा पाओगे।
नहीं फिर टूट चुके ये सब धर्म-जाति के नाम पर,
संविधान ताक पर रखकर एक-दूसरे को मार रहे होंगे।
खुद को कह देशभक्त दूसरों को देशद्रोही बता रहे होंगे।
जब सब राजनीति के काम समझ जायेंगे,
तो शायद फिर ऐसे दिन आयेंगे,
फिर चुनाव तो होंगे,
पर न मैं हिन्दू और न ही रहीम चचा मुसलमान होंगे।