बावरा मन
बावरा मन
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मन ऐ बावरे मन तू ऐसा क्यूँ है बावरे मन
जो पास हो तुझे क्यूँ वो देता है चुभन
क्यूँ रहता है तू हरदम उलझा हुआ
क्यूँ कभी भरता ही नहीं किसी से तेरा मन
मन ओ रे मन बावरे रे मेरे मन
जब भी तेरे जो भी पास हो उसकी ना तुझे कद्र
कौन अपना है कौन अजनबी तू है बेखबर
ख़ुद के सिवा...
किसी की सुनता नहीं
ख़ुदगर्ज़ है...
किसी की परवाह नहीं
क्यूँ ऐसा है रे तू...
मन ऐ बावरे मन...
तड़पाता है रुलाता है कभी ख़ुद से ही रूठ जाता है
फिर कोईं ना जब मनाये तो ख़ुद को ही तू बहलाता है।
यूं ही नहीं ऐ मन मेरे तू बावरा कहलाता है
क्यूँ ऐसा हैं रे तू...
मन ऐ बावरे मन...