मैं शमा सी पिघलती रही
मैं शमा सी पिघलती रही
1 min
320
रात भर मैं शमा सी पिघलती रही
दे उजाला तमों को निगलती रही।
तो कभी पुष्प बनकर यहाँ से वहाँ
राह पर भारती के बिखरती रही।
नारियाँ हैं नहीं आज सुरक्षित यहाँ
देखकर दुर्दशा मैं बिलखती रही।
वासना से घिरे लोग देखो जरा
बच्चियां भी घरों में सिसकती रही।
लाड़ से पालना था कि दुख से बचा
देख अपने डरी सी सिमटती रही।
सत्य से भी भली ये बुराई लगी
प्रेम-रिश्ते सभी मैं बिसरती रही।