शबनमी यादें
शबनमी यादें
शबनमी चादर से लिपटी
हौले-हौले खिलती
उषा मेरे आँगन बैठी।
झीनी-झीनी रश्मियों की
पाजेब की झनकार लिए
नींद से बोझिल पलकों पर
दस्तक अपनी दे गई।
यादों की पूरनूर गठरियाँ
चुपके-चुपके दे गई
आदित की पटरानी धूप,
बरामदे में बैठे
गर्माहट की सरसराहट
दुपहर में बदल गई।
बसंती बयार लाई
हल्की सी केसरिया शाम
दरिया की लहरों से बुनती
पूरे दिन की झालर।
दुधिया बादल शाम को घेरे
केसरिया लपेटे
बैंगनी जामुनी रंगीन
कितने रंग के मेले।
दुबक गया लो सूरज अपनी
रश्मियाँ समेटे
सागर की बाँहों में।
पर्वत के पीछे से झाँके
दस्तक देता चाँद खड़ा
रात की गोद में खेलें।
आसमान के सीने पर ये
किसने सितारे जड़ दिये
कुदरत के ये जवाँ नज़ारे
हरसू डेरा डालें।
अपनी-अपनी खूबसूरती का
आँचल सर पर ओढ़े
थिरकते इठलाते पूरी
कायनात को घेरे।