ज़िंदगी
ज़िंदगी
जाने क्यों लगता है कि ज़िंदगी
ठहर सी गयी है
साँसे थमी नहीं,
बातें रुकी नहीं,
सब खत्म सा लगता है,
आदमी निराश सा क्यूँ है,
चेहरा उदास है कि हँसी बिखर गयी है
जाने क्यों लगता है कि ज़िंदगी...
कदम ठिठके से हैं,
राहें भटके से हैं,
कुछ नज़र नही आता,
धुँधला आकाश - सा क्यूँ है ?
ऐसी उठापटक में धरती सिहर - सी गयी है ।
जाने क्यों लगता है कि ज़िंदगी...
रिश्तों का मोल नही,
मीठे अब बोल नही,
खुशियाँ भी पल भर की लगती हैं
जीवन इतना निराश - सा क्यूँ है ?
उमंग आशाएँ जाने किधर - सी गयी हैं ?
जाने क्यूँ लगता है कि ज़िंदगी
ठहर - सी गयी है !