अन्तःरस्थ मन
अन्तःरस्थ मन
मुझे कुछ अन्तःरस्थ कचोड़ रहा हैं।
शायद मेरा अंतर्मन मुझे छोड़ रहा हैं।
उदासी की अभिलाषा लिये मुख से मुस्कुराती हूँ।
चीख कर अँधियारे मैं,
खुद अचित सी हो जाती हूँ।
नयन रोन्द्र मैं पीड़ा हैं ये,
वो नही जाने पक्षकोम हैं ये।
मूर्छित मन को कैसे मैं मनाऊँ
ईस वायुशूल से कैसे अक्षन्तव्य हो जाऊं।
ज्ञात हूँ कि मैं नदी सहारे-
वो समझी पहुँचा दूँ किनारे।
मेरा मन कुलकनषा समझ ना पाई-
दिया किनारे कर के मुझको-
धकेल दिया कायाश्रम तक को।
स्पष्ट नही हैं मनभावन-
उलझ रही मैं पावन।
आषाढ़ मैं ढूंढू धूप की काया
चैत मैं ढूंढू वटवृक्ष की छाया।
कुछ अजीब सी हो गई हैं
अब तो हयात-
कब तक रहूँ मैं पक्षपात।
पार्थ के स्वामी मन पढ़ो तो मेरा
मैं मूंद लूं चक्षु तो सम्पूर्ण तेरा।
अधूरी लिखी हैं मैने आज भी गाथा
हरफ़े गलत हूँ मैं तो मिटा दो मुझे
दर्द अक्सर बयां करने की सजा दो मुझे।