पहचाना सा एक चेहरा
पहचाना सा एक चेहरा
वर्षों हुए एक बार देखे उसको
तब वो पूरे श्रृंगार में होती थी
बात बहुत करती थी
अपनी गहरी आँखों से
शब्द कहने से उसे
उलझनें तमाम होती थी।
इमली चटनी
आम की क्यारी
चटपट खाना बहुत पसंद था
सैर सपाटे
चकमक कपड़े रंगों का खेल
गाना बजाना हरदम था।
खेलना कूदना
पढ़ना लिखना सपने सजाना
सब उसके फेहरिस्त का हिस्सा थे
सावन, झूले
नहरों में नहाना, पसंद का खाना
कई तरह के किस्से थे।
आज दिखी थी
नुक्कड़ के बाजार में
अकेली सादा सा लिबास ओढ़े हुए
चाल धीमी थी
कंधे पर कटे बाल झूलते
चेहरा बिल्कुल ही उदास था।
काले पड़े थे होंठ
उनमें लाली न थी
कई दिनों से जैसे वो नहाई न थी
मैं ढूंढ रह था
उसकी गहरी आँखों को
वो सुख चुकी थी
उनमें अब नमी ना थी।
मैंने लोगों से पूछा
ये यहां कब से खड़ी है
वो बोले जबसे उसके प
ति का शव उठाया गया
लगा एक बार
बुलाऊँ लेकर मैं नाम उसका
मुझे नाम याद था
पर मुझसे बुलाया ना गया।