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Arpan Kumar

Abstract

4  

Arpan Kumar

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वसंत पंचमी पर लड़कियाँ

वसंत पंचमी पर लड़कियाँ

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गमलों में तो कभी क्यारियों में

हमारी ही उगाए पुष्प

हमारे ही खिलाए पुष्प 

हमारी ही बनाई प्रतिमाओं पर

हमारी ही सजाई प्रतिमाओं पर


अर्पित होते थे,

हमारे पेड़ों के ही फल

वसंत पंचमी पर

प्रसाद में चढ़ाए जाते थे

 

माँ, बहन, भाभी 

तो बुआ की

गज़ों लंबी साड़ियाँ

अपने-अपने तनों पर

लपेटी हुईं


नाज़ुक सी वे लड़कियाँ

उस दिन

हमारे स्कूल में

बाहर से शर्माती हुई

तो अंदर-ही-के-अंदर

कहीं खिलखिलाती हुई

आती थीं


उनके चेहरों से

देवी का-सा ही तेज़

टपकता था

पूर्णिमा के चाँद-सा

हर-एक का चेहरा

खिला-खिला होता था  


ईंटें-ईटें उस पुरानी इमारत की

महक-महक उठती थीं

भ्राता से छुपते-छुपाते

पिता से बचते-बचाते

वे कई अनजाने भावों को


कुछ जाने-पहचाने अनुरागों को

अपने हिए में दबाए रखती थीं 

बस एक कच्चा-सा रास्ता होता था

हमराज़ वही उनके दिलों का होता था


वे चिट्ठियाँ जो किसी को न भेजी गईं

वे चिट्ठियाँ जो मन में ही लिखी गईं

ऐसी चिट्ठियों को

मन-ही-मन बाँचते हुए 


कब गर्दन लचक जाती थी

कब आँखें झुक-झुक जाती थीं

यह कोई न जानता था

ऐसे पलों में वही रास्ता

चुपचाप उन्हें सँभाला करता था,


जब सखियाँ परस्पर

एक-दूजे को छेड़ा करती थीं

अशोक या कि आम

नीम या कि इमली के

तने से लगकर

तो कभी उसके इर्द-गिर्द

गोल-गोल घूमती हुईं


वे दुहरी-दुहरी हो जाती थीं

उनके ही पीले दुपट्टों से

वसंत की छटा बिखरती थी

उनके लाल-कत्थई होंठों से

राग-वसंत फूटता था

 

गाँवों की वे लड़कियाँ

मासूम-सी वे तितलियाँ

जाने किस बाग को उड़ गईं

हमारी ही तरह शायद

वसंत की रंगत भी  

बिखर-बिखर गई


हम अब वैसे कहाँ रहे

हमारे गाँव वैसे कहाँ रहे

कुछ भी वैसा अब कहाँ रहा

कुछ भी सच्चा अब कहाँ रहा  


उदासी और अकेलेपन को ओढ़े

जाने किसी दीवानगी में

सिर धूनता वह रास्ता भी

अब वह रास्ता कहाँ रहा !


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