पराये देश में बुज़ुर्गों की व्यथा
पराये देश में बुज़ुर्गों की व्यथा
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
विरह, तन्हा हो गया
हूँ बिन सहारे।
हाल भी न पूछता
अब आ के कोई,
पास भी न बैठता
दिल लगा के कोई।
आसमाँ से गिर रहा
ज्यूँ टूटे तारे,
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
घेरती यादें तुम्हारी
बन के सपने,
इस बेगाने देश में
मैं ढूंढू अपने।
याद मुझको आते हैं
वो पल गुज़ारे,
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
किस से कहूँ मैं यहां
पे दिल की बाती,
विरह से मैं लिख रहा हूँ
नित्य पाती।
ढूंढता भँवर में बैठा
मैं किनारे,
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
माटी मेरे देश की
अब वह भी रूठी,
अजनबी हवा में हो गई
सांस झूठी।
याद मुझको आते है
गंगा के धारे ।
पार्क में बैठा हूँ
बिलकुल अकेला,
पेड़-पौधे,पक्षियों का
है झमेला,
फूल कागज़ के खिले
बगिया में सारे,
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
ढूंढतीं मेरी निगाहें
अब साथ मेरे,
हम निवाला, हम जुबां
हम राज मेरे।
चाहता हूँ करना
मैं कुछ दिल की बातें।
लौट जाना चाहता हूँ
मैं वतन,
ख़ाक के समान हैं
सारे रतन,
सूखी रोटी देश की है
दुग्ध धारे।